हिमपात क्या होता है ?
हिम जमे हुए पानी के नन्हे रवों से बनती है , जो आकाश से गिरते हैं । हिम कण अनगिनत आकृतियों में पाए जाते हैं । ये आमतौर पर 6 कोणों वाले होते हैं तथा चपटे , ' सूई ' और ' स्टार ' की आकृति के भी होते हैं । कोई दो हिम कण एक जैसे नहीं होते । ताजा गिरी हुई हिम सूर्य की लगभग 95 प्रतिशत गर्मी को वापस आकाश में परावर्तित देती है ।
क्या आप जानते हैं कि हिमपात होता कैसे है ?
सूर्य की गर्मी के कारण समुद्रों , नदियों , झीलों तथा तालाबों से लगातार पानी का वाष्पीकरण होता रहता है क्योंकि जलवाष्प हवा से हल्के होते हैं , ये वातावरण में ऊपर चले जाते हैं तथा बादल बन जाते हैं । हम जानते हैं कि जैसे - जैसे हम वातावरण में ऊपर जाते हैं तापमान कम होता जाता है क्योंकि तापमान के कम होते जाने से हवा की जलवाष्पों को थामे रखने की क्षमता कम होती जाती है
और एक विशेष ऊंचाई पर पहुंच कर जलवाष्प एक बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं । अत्यधिक मात्रा में जलवाष्पों को थामे हुई हवा को ' सुपर सेंचुरेटिड ' कहा जाता है । इस स्थिति में जलवाष्प हवा में मौजूद धूल तथा धुएं के कणों पर एकत्र हो जाते हैं और अधिक ठंडा होने पर ये हिमकणों में परिवर्तित हो जाते हैं । ये कण एक दूसरे के साथ जुड़ कर हिम के रवों का रूप ले लेते हैं । जब हवा इस भार को बर्दाश्त नहीं कर सकती ये हिमकणों के रूप में नीचे गिर पड़ते हैं तथा पर्वतों पर एकत्र होते रहते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि हिमपात केवल पर्वतों पर ही क्यों होता है ? क्यों नहीं यह मैदानी क्षेत्रों में भी होता ?
दरअसल , किसी भी स्थान पर हिमपात की संभावना दो बातों पर निर्भर करती है - समुद्र तल से उस स्थान की ऊंचाई तथा भूमध्य रेखा से इसकी दूरी जितनी किसी स्थान की ऊंचाई अधिक होगी उतनी ही वहां हिमपात की संभावना अधिक होगी । इसी तरह जितनी किसी स्थान की दूरी भूमध्य रेखा से अधिक होगी वहां हिमपात की संभावना उतनी ही अधिक होगी
हालांकि वातावरण में बनने वाली हिम की मात्रा बहुत अधिक होती है फिर भी इसकी बहुत कम मात्रा हिम रूप में पर्वतों पर गिरती है । बाकी की हिम वर्षा के रूप में पर्वतों पर गिर पड़ती है क्योंकि गर्म क्षेत्रों से गुजरते हुए यह पिघल जाती है तथा पानी में बदल जाती है, क्योंकि पर्वतों पर तापमान कम होता है इसलिए फिर वहां नहीं पिघलती यह वहां हिम के रूप में इकट्ठी होती रहती है ।
तथा परत - दर - परत इसके इकट्ठा होते रहने से भार के कारण यह कड़ी जाती है । हिमपात हमारे लिए बहुत उपयोगी चीज है । जब गर्मियों में हिम पिघलती है तो पिघला हुआ पानी नदियों के रूप में बहता है तथा इसका इस्तेमाल सिंचाई लिए किया जाता है । ताजा हिम बहुत हल्की होती है तथा एक अच्छी विसंवाहक होती है जो नीचे के पौधों को कड़ी ठंड से बचाती है ।
हिम गर्मी की बुरी संवाहक होती है क्योंकि इसके कणों में हवा फंसी होती है । इस तरह से यह पृथ्वी के लिए कम्बल का काम देती है । क्षेत्रों में लोग हिम से घर बनाते हैं क्योंकि यह ठंडे मौसम से शानदार सुरक्षा प्रदान करती है । पर्वतीय क्षेत्रों में घरों की छतों को ढलानदार बनाई जाती हैं ताकि हिम उन पर इकट्ठी न हो सके । इससे उनमें रहने वाले हिम के विपरीत प्रभावों से बचे रहते हैं तथा छतें भी गिरने से बची रहती है ।
हिमशैल कैसे बनते हैं ?
दक्षिणी गोलार्द्ध में अंटार्कटिक की बर्फ की चादर अपने नीचे की धरती से आगे तक फैल कर समुद्र पर बर्फ के शैल्व्ज बनाती है । ये बहुत बड़े आकार के होते हैं , 200 किलोमीटर तक के । यही टूट कर हिमशैल बनाते हैं । उत्तरी गोलार्द्ध में हिमशैल आमतौर पर 150 मीटर चौड़ाई से अधिक नहीं होते। हालांकि अधिकतर हिमशैल ग्रीनलैंड के , पश्चिमी तट पर लगभग 20 ग्लेशियरों से आते हैं ।
पर्वतों तथा घाटियों से खिसकते हुए ग्लेशियर जब समुद्र में पहुंचते हैं तो वे लहरों द्वारा बड़े टुकड़ों में तोड़ दिए जाते हैं । बर्फ के ये विशाल टुकड़े हिमशैल कहलाते हैं । फिर भी कुछ ग्लेशियर ऐसे हैं जो समुद्र में बहुत लम्बी दूरी तक तैरने के बावजूद टूटते नहीं तथा बर्फ के पर्वतों जैसे दिखाई देते हैं । विभिन्न हिमशैलों के आकार अलग - अलग होते हैं ।
सबसे छोटे हिमशैल की लम्बाई चौड़ाई 5-6 मीटर होती है लेकिन बड़े सैंकड़ों लम्बे हो सकते हैं । कुछ हिमशैल , जिनकी लम्बाई - चौड़ाई आधा किलोमीटर के करीब थी महासागरों में तैरते देखे गए हैं । हिमशैल समुद्र में इसलिए तैरते हैं क्योंकि बर्फ पानी से हल्की होती है । इनका दसवां भाग पानी के ऊपर रहता है तथा बाकी का पानी के नीचे ।
उदाहरण के लिए यदि पानी के ऊपर 50 मीटर ऊंचा हिमशैल दिखाई दे रहा है , तो इसका 450 मीटर भाग पानी के नीचे होगा । इन हिमशैलों में बड़ी मात्रा में हिम होती है । कइयों में तो 20 करोड़ टन तक बर्फ हो सकती है । हिमशैलों के तैरने पर इनकी कुछ बर्फ पिघल जाती है तथा ये टुकड़ों में टूट जाते हैं और अंततः लुप्त हो जाते हैं ।
अपने अत्यधिक भार तथा आकार के कारण हिमशैल अपने आप समुद्र में नहीं तैरते । इन्हें समुद्र की लहरों द्वारा आगे धकेला जाता है । ये जलयानों के लिए बहुत खतरनाक होते हैं । इनसे टकराने पर जहाज टूट सकते हैं । हालांकि आधुनिक उपकरणों की सहायता से इन्हें देखा जा सकता है। फिर भी कभी - कभार इनके कारण दुर्घटनाएं होती रहती हैं।
टाइटैनिक नामक जहाज 14 अप्रैल 1912 को एक हिमशैल से टकरा कर ही टूटा था । यह जहाज न्यूयार्क जा रहा था तथा इसमें सवार 1513 लोग इस दुर्घटना में मारे गए थे । ऐसी ही एक दुर्घटना 30 जनवरी 1959 को हुई थी जब हांस हैडटॉफ्ट नामक एक जलयान दक्षिणी ग्रीनलँड एक हिमशैल से टकरा कर टूट गया ।
अब संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य देशों ने एक अंतर्राष्ट्रीय ' आईस पैट्रोल ' की स्थापना की है । यह गश्ती दल जहाजों , विमानों तथा राडारों का इस्तेमाल करके हिमशैलों की स्थिति का पता लगाता है । हिमशैल का अधिकांश भाग समुद्र के पानी में डूबा रहता है । हिमशैल का केवल एक सिरा ही पानी की सतह से बाहर निकला दिखाई देता है ।
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