मुझे भी प्यार कीजिए न दादा जी , dada pota ki kahani
मैं हूँ कुमार क्या आप मेरी सच्ची कहानी सुनना चाहेंगे ? यदि हां ! तो सुनिए ... मेरा नाम दीपू है । आज मैं आपको अपने दादा जी से जुड़ी एक छोटी - सी घटना सुनाता हूं ... मैं आपको बता दूं कि मैं अपने मम्मी - पापा का सगा बेटा नहीं हूं । मेरे मम्मी - पापा ने मुझे गोद लिया हुआ है ।
दरअसल जिन्हें मैं मम्मी - पापा कहता हूं वह मेरे सगे मौसी - मौसा हैं , जिस दिन मुझे इस हकीकत का पता चला था मुझे अजीब - सा महसूस हुआ था । कितनी विचित्र बात थी कि जिस बहन से मैं मौसी की बेटी समझ कर राखी बंधवाता रहा था वह मेरी सगी बहन थी । मुझे मेरे नए मम्मी - पापा का भरपूर प्यार मिलता है ।
बचपन से ही उन्होंने मुझे पाला है और आज तक मुझे उन्होंने इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि मैं उनका सगा बेटा नहीं हूं । मेरी हर शैतानी - नादानी - गुस्से - जिद आदि को उन्होंने झेला है । मैं अपनी हकीकत जान चुका हूं ....। इस बात का पता उन्हें है पर भूल से भी इस बात का जिक्र घर में कोई नहीं करता । खैर .. मैं अपने दादा जी की सुनाता हूं ...
एक दिन मेरे पैर में चोट लग गई । चोट गहरी थी । मैं दर्द के मारे बिलबिला उठा । मेरे दादा जी को जब इस बात का पता चला तो वह दौड़े - दौड़े कर आए लेकिन जब उन्हें पता चला कि चोट मेरे को लगी है तो उन्होंने जैसे राहत की सांस ली थी दरअसल वह समझे थे कि चोट सोनू को लगी है । सोनू मेरे चाचा जी का इकलौता बेटा है ।
मेरे पापा के ही भाई हैं । एक मेरे मुंह बोले पापा और दूसरे सोनू के सगे पापा । मैं अपने दादा जी को बहुत प्यार करता हूं लेकिन बावजूद इसके मुझे आज तक उनका प्यार नहीं मिला । अब आखिर इसमें मेरा क्या कसूर है कि मेरे पापा मेरे सगे पापा नहीं शायद मेरे दादा जी आज तक मुझे अपने सगे पोते के रूप में स्वीकार नहीं कर पाए हैं
सोनू उनका सगा पोता है । सो उसे ही उसके हिस्से के साथ साथ मेरे हिस्से का प्यार भी मिल जाता है । यह चोट वाली घटना काफी पुरानी है । तब मैं सगे और मुंह बोले रिश्तों की परिभाषाओं से बहुत दूर था । मेरे लिए मेरे पापा , मेरे सिर्फ पापा थे । इसी प्रकार मेरी मां थीं , दादा जी थे और मेरे चाचा का लड़का सोनू मेरा भाई था ।
आज मैं समझदार हूं लेकिन आज तक मुझे चोट वाली घटना हू - ब - हू याद है । उस दिन जब मेरे चोट लगी तो पापा की भड़भड़ाहट देखने लायक थी । मां की आंखों के आंसू भी मुझे अच्छी तरह याद हैं लेकिन आशा के विपरीत दादा जी का व्यवहार मैं कैसे भूल जाऊं ? मेरे को चोट लगी हुई थी । मैं कमरे में बिस्तर पर लेटा रह - रहकर सिसकियां ले रहा था।
दादा जी कमरे में आए । मैंने सोचा था कि दादा जी मुझे सीने से लगा कर दुलारेंगे , मेरी दुखती चोट पर अपनी सहानुभूति का राहत भरा कोमल हाथ फेरेंगे । पर मेरी इन सब कल्पनाओं के परे , दूर से ही जब उन्होंने मुझे बिस्तर पर कराहते देखा तो वह एकाएक रुक गए ।
उस क्षण उनके मुंह से मेरे प्रति सहानुभूति के दो शब्दों की जगह यह निकला , " अरे तुम ? मैं समझा कि सोनू को चोट लगी है ? " कहने के साथ ही दादा जी कमरे से बाहर निकल गए थे । कहां मैं उनसे सहानुभूति के दो शब्दों की अपेक्षा कर रहा था और कहां उपेक्षा से भरा उनका यह व्यवहार !
अब तो इस घटना को हुए काफी समय बीत चुका है और मैंने भी दादा जी के प्यार बिना ही जीना सीख लिया है । फिर भी जब कभी मैं पड़ोस के अन्य दादाओं को अपने पोतों या फिर अपने ही दादा जी को सोनू को प्यार करते हुए देखता हूं तो मन - ही - मन चीख उठता हूं ...
आखिर मेरा कसूर क्या है ? मुझे भी प्यार कीजिए न दादा जी ... आपके लिए तो मैं सगा न सही , सोनू जैसा तो हूं ही । फिर आपको मुझे भी सीने से लगाने में संकोच कैसा ? प्लीज दादा जी ! एक बार तो मुझे अपने सीने से लगाकर दीपू कहिए ...। मेरी भी पुच्ची लीजिए ... न जाने मेरी यह इच्छा कब पूरी होगी ? होगी भी या नहीं ... क्या कह सकता हूं ?
शायद मेरी यह दुख भरी कहानी सुनकर मेरे जैसे कुछ दादाओं के अपने पोतों के प्रति व्यवहार बदल जाएं और वे उन्हें अपने सीने से लगाकर , प्यार कर उठे । सोनू और दीपू की संकुचित दीवारों से ऊपर उठकर ।
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