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एक और मर्दानी ( रानी अवंतीबाई )

 रानी अवंती बाई


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मध्य प्रदेश के मंडला जिले में एक छोटी-सी रियासत थी, जिसका नाम रामगढ़ था। रामगढ़ एक मनोरम और प्राकृतिक वनस्थली है। निजामशाह के सेनापति मोहन सिंह लोधी के पुत्र गुज्जर सिंह लोधी ने यहां अपना राज्य स्थापित किया था। 


और रामगढ़ को अपनी राजधानी बनाया था। मोहन सिंह लोधी अत्यंत वीर और पराक्रमी सेनापति थे। उनकी वीरता से प्रसन्न होकर निजामशाह ने उन्हें रामगढ़ की जागीर दे दी थी। मोहन सिंह लोधी की मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे गुर्जर सिंह लोधी जागीरदार बने। 



गुर्जर सिंह बड़े महत्वाकांक्षी थे, अतः उन्होंने जागीरदार बनते ही निजामशाह से संबंध तोड़ लिए और रामगढ़ को एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया। गुर्जर सिंह के वंशज उन्हीं के समान बुद्धिमान और पराक्रमी थे।



गुर्जर सिंह लोधी की मृत्यु के बाद रामगढ़ राज्य का विस्तार उनके पौत्र विक्रमादित्य लोधी ने किया। विक्रमादित्य ने रामगढ़ को एक सशक्त राज्य बनाया। उन्होंने प्रजा के हित में अनेक कार्य किए जिससे वह प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय हो गए। उनकी पत्नी का नाम अवंतीबाई था।



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1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई के मान अपनी वीरता और साहस का जौहर दिखाने वाली एक और वीरांगना थी। जिसने अपने बुद्धि और कौशल से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। वह वीरांगना विक्रमादित्य लोधी की पत्नी अवंतीबाई थी। 



अवंतीबाई का जन्म मंडला की एक छोटी-सी जागीर मनकेडी में हुआ था। उनके पिता राव गुलजार सिंह एक जागीरदार होने के साथ-साथ बड़े नेक और साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी बेटी को राजकुमारों की तरह पाला था और अस्त्र शस्त्र चलाने और घुड़सवारी आदि की शिक्षा दी थी।



 अवंती बाई विवाह के बाद रामगढ़ की रानी बन गई। उसके पति बड़े पराक्रमी योद्धा और कुशल शासक थे। कुछ समय बाद अवंतीबाई ने दो बेटों को जन्म दिया। उनके दोनों बेटे अभी छोटे ही थे कि अवंतीबाई पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य प्रजा का सभी प्रकार से ध्यान रखते थे और हमेशा प्रजा के हित में ही कार्य करते थे 



किंतु अत्याधिक धार्मिक होने के कारण राज-काज में पूरा समय नहीं दे पाते थे। उनका अधिकांश समय पूजा पाठ धार्मिक अनुष्ठानों को ही संपन्न कराने में बीतता था। इससे धीरे-धीरे रामगढ़ की स्थिति बिगड़ने लगी। रानी अवंती बाई ने कुछ समय तो यह सब सहन किया किंतु जब स्थिति बहुत अधिक खराब हो गई तो स्वयं राजकाज देखना आरंभ कर दिया। 


अवंती बाई ने जिस समय रामगढ़ राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली, उस समय भारत में लार्ड डलहौजी का शासन था। वह किसी ना किसी बहाने से छोटी-बड़ी रियासतों को हड़प रहा था। रामगढ़ रियासत पर भी डलहौजी की दृष्टि पहले से ही थी। रानी अवंती बाई के सिंहासन पर बैठते ही उसे रामगढ़ को हड़पने का अवसर मिल गया। 



अवंतीबाई के शासन संभालते ही लॉर्ड डलहौजी ने उन्हें एक पत्र भेजा जिसमें राज्य की देखभाल के लिए एक अंग्रेज अधिकारी रखने की बात कही गई थी। रानी अवंतीबाई ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। रानी के प्रबल विरोध के बाद भी अंग्रेजों ने 1851 में रामगढ़ का कामकाज देखने के लिए एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया। 



इसी समय राजा विक्रमादित्य लोदी की मृत्यु हो गई। इस कारण रानी कोई विरोध न कर सकी। अंग्रेजों की कुदृष्टि केवल रामगढ़ पर ही नहीं बल्कि पूरे मंडला पर थी। मंडला के शासक शंकरशाह एक देशभक्त शासक थे तथा अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए आसपास के राजाओं के साथ मिलकर योजना बना रहे थे। 



खबर मिलते ही अंग्रेजों ने आक्रमण कर दिया और राजा शंकरशाह तथा उनके बेटे रघुनाथ शाह को बंदी बना लिया। इस घटना से आसपास के राजाओं के साथ ही रानी अवंतीबाई भी भड़क उठी। अवंती बाई ने मंडला के अंग्रेज शासक कैप्टन वार्डन पर हमला कर दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ और अवंतीबाई को विजय मिली। 



कैप्टन को गिरफ्तार करके अवंतीबाई अपने साथ ले गई क्षमा याचना करने तथा स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध कोई कार्य न करने की शर्त पर कैप्टन को जीवनदान दे दिया गया।


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कैप्टन वार्डन एक धूर्त और मक्कार अंग्रेज अधिकारी था। उसने एक माह के अंदर ही एक बड़ी सेना लेकर रामगढ़ के किले के पास आकर उसके चारों ओर से घेर लिया। तीन माह तक किला धिरा रहा। इस बीच किले के अंदर की सारी खाद्य सामग्री समाप्त हो गई। 


बाहर से कैप्टन के सैनिकों ने किले पर गोलीबारी शुरू कर दी। अवंतीबाई अपने कुछ वफादार सैनिकों के साथ गुप्त द्वार से निकलकर देवहार गढ़ जंगल मे पहुंच गई। अवंतीबाई ने अपने मुट्ठी पर सैनिकों के साथ वार्डन के सैनिकों पर पीछे से हमला कर दिया। 20 मार्च 1858 को दोनों के मध्य भीषण युद्ध हुआ। 


अवंतीबाई ने अंतिम क्षणों तक लोहा लिया। उसके सभी सैनिक शहीद हो चुके थे, अवंती चारों ओर से धिर चुकी थी। अचानक उसके हाथ में एक कटार चमकी और अगले ही क्षण उसने अपने सीने के पार कटार को उतार लिया। कैप्टन चकित रह गया।



 वह अवंतीबाई को जीवित पकड़ना चाहता था किंतु अवंतीबाई उसके निकट आने के पहले ही अपना बलिदान देकर वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी। 


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एक और मर्दानी ( रानी अवंतीबाई ) Reviewed by Jeetender on July 19, 2021 Rating: 5

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