आखरी पेशवा और एक वीरगाथा (कहानी)
धोंडू पंत नाना
धोंडू पंत , जिसे नाना भी कहा जाता था , अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के पुत्र थे । बाजीराव के मरने पर अंग्रेजों ने उनकी पैंशन बंद कर दी थी । नाना साहब के जीवन के तीन दौर थे । पहले दौर में उन्होंने अंग्रेजों से मित्रता बढ़ाई । अंतिम दौर में नेपाल चले जाने के बाद नाना ने अंग्रेजों के साथ संधिवार्ता चलाई , जो विफल रही ।
वह भारत लौट आना चाहते थे , पर इस आश्वासन के साथ कि उन पर मुकद्दमा नहीं चलाया जाएगा । पहले और तीसरे दौर के बीच वह अंग्रेजों से लड़े । कुछ लोग नाना को विद्रोह के आगुओं में गिनते हैं , जबकि दूसरे उन्हें कमजोर बताते हैं । पर सभी यह मानते हैं कि अंग्रेजों को लिखे इस अंतिम पत्र में उहोंने अपने आपको उबार लिया ।
" एक दिन तो मरना ही है , तो मैं अपमानित हो कर क्यों मरूं ? जब तक मुझमें प्राण हैं , तब तक मेरे तुम्हारे बीच लड़ाई जारी रहेगी भले ही मैं मारा जाऊं, कैद किया जाऊं , फांसी पर चढ़ा दिया जाऊं और मैं जो कुछ भी करूंगा तलवार के जरिए करूंगा । " लोगों पर नाना का ऐसा दबदबा था कि नेपाल में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद भी उन्हें विश्वास था कि वह भारत में स्वतंत्र घूम रहे हैं और अंग्रेजों की हुकूमत उखाड़ फेंकने की योजनाएं बना रहे है ।
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एक वीरगाथा
वीरगाथा धारू पुर ( अवध ) के लाल हनुमंत सिंह ने सलोन के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन बैरो को अपने किले में शरण दी थी। दो हफ्ते बाद हनुमंत सिंह ने अपने 500 सैनिक साथ लेकर खुद ही अपने अतिथि को इलाहाबाद पहुंचा दिया ।
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