वीर सेनानी
वहां अंग्रेज लड़के भी पढ़ते थे । एक दिन मध्यावकाश के समय अंग्रेज बच्चे मैदान में खेल रहे थे । और सभी भारतीय विद्यार्थी पेड़ के नीचे बैठे थे । सुभाष ने उनसे पूछा क्या तुम्हारा मन खेलने को नहीं करता ? वे बोले , " हम खेलना तो चाहते हैं पर ये अंग्रेज लड़के हमें मैदान में आने नहीं देते।"
यह सुन कर सुभाष ने कहा , " क्या तुम्हें ईश्वर ने हाथ पैर नहीं दिए ? तुम गोबर और मिट्टी के बने हो , चलो गेंद खेलें । " निडर सुभाष के पीछे - पीछे सभी बच्चे मैदान में दौड़ पड़े । अंग्रेज बच्चे उन्हें रोक न सके । दोनों दलों में घमासान झगड़ा हुआ । शिक्षक के समझाने पर सभी बच्चे अपनी - अपनी कक्षाओं में चले गए ।
प्राचार्य द्वारा इसकी शिकायत जब सुभाष के पिताजी से की गई तो उन्होंने पिताजी को कहा कि वह विद्यालय में पत्र लिखें कि वे अंग्रेज बच्चों को समझाएं कि वे अन्याय सहन नहीं करेंगे । दस वर्ष का होने पर वह अपने मामा के पास कोलकाता चले गए ।
वहां उन्होंने अपने मामा से खिलौने , कपड़े या मिठाई की कोई बाल-सुलभ ज़िद नहीं की अपितु मामा से कहा कि मुझे तो क्रांतिकारी सुशील कुमार सेन के दर्शन ही करने हैं । उधर सुशील कुमार सेन हर बैंत की मार के साथ ' वंदे मातरम् ' बोल रहे थे और इधर सुभाष बाबू मामा के हाथों में बेकाबू हो रहे थे ।
नाना साहब पेशवा , तांत्या टोपे , रानी लक्ष्मी बाई , खुदीराम बोस , चापेकर बंधु उनके जीवन आदर्श थे । एक बार घर में उनके द्वारा संग्रहित क्रांतिकारी चित्र संग्रह जला दिया गया तो वह फूट - फूट कर रोए और दो दिन तक कुछ नहीं खाया । सुभाष बाबू के भीतर तूफानों की गति थी , राष्ट्रभक्ति का ज्वार रोके नहीं रुकता था ।
वह तो बस अपनी भारत माता को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाना चाहते थे । सुभाष बाबू घर में सदैव ध्यान में मग्न रहते थे । कभी घर में अध्ययन नहीं करते थे । पर बुद्धि इतनी तीव्र कि मैट्रिक में राज्य भर में दूसरे स्थान पर आए । बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और उसके बाद आई.सी.एस. की परीक्षा इंगलैंड जाकर पास की ।
विवाह न करने की शपथ ली और पूरा जीवन दीन दुखियों की सेवा में बिता दिया । बाढ़ , हैजा , अकाल आदि आपदाओं से लड़ते हुए उन्हें देश की वास्तविक स्थिति के दर्शन हुए । उस समय देश में दरिद्रता , अकर्मण्यता , अज्ञानता , आलस्य , पराधीनता तथा भीरुता का साम्राज्य था ।
कौन इस स्थिति को बदल सकता है , यह प्रश्न उनके हृदय को कचोटने लगा । बंदूक चलाना और घुड़सवारी इन्होंने कॉलेज में ही सीख ली थी । उस समय भारत में और इंगलैंड में जिस आई.सी.एस. को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता था उसे पाकर भी सुभाष बाबू ने त्यागपत्र दे दिया और अपने भाई को पत्र लिखा ,
" मैं भला उन अंग्रेजों की सेवा कैसे कर सकता हूं जो हमारे देश पर कब्जा जमाए बैठे हैं तथा भारतवासियों का शारीरिक और मानसिक शोषण कर रहे हैं । मुझे भारत माता की पुकार दिन - रात सुनाई दे रही है । स्वतंत्रता संग्राम का सैनिक बनने हेतु ही मैंने आई.सी.एस. पास किया है । "
इंगलैंड से आकर सुभाष बाबू गांधी जी से मिले । कुछ दिन नैशनल कालेज के प्रिंसीपल भी रहे । कुछ पत्र - पत्रिकाओं के संपादक भी बने । देशबंधु चितरंजन दास का इनके जीवन पर गहन प्रभाव पड़ा । देशबंधु द्वारा स्वराज पार्टी में इन्होंने तन , मन , धन से सहयोग दिया ।
किसी भयानक आशंका के डर से ब्रिटिश सरकार ने इन्हें मांडले जेल भेज दिया परंतु स्वास्थ्य खराब रहने के कारण रिहा कर दिया गया । कारावास से मुक्त होने पर डा . अंसारी ने इन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया । अध्यक्ष बनने के बाद इन्होंने शुद्ध हिन्दी में प्रेरणादायी भाषण दिया ,
इतिहास बताता है कि साम्राज्य निर्मित होते हैं , फैलते हैं और नष्ट होते हैं । अंग्रेजी साम्राज्य अब तीसरी स्थिति में है । उनके राज की समाप्ति हमारी एकता , दृढ़ता , पराक्रम तथा त्याग पर निर्भर है । स्वराज्य प्राप्ति के लिए हमें क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे । " उन्होंने पूरे देश का दौरा किया ।
स्वतंत्रता , प्रेम की ज्योति प्रज्ज्वलित की । सुभाष के उक्त विचारों , स्वतंत्र कर्त्तव्य और प्रभाव के कारण बड़े - बड़े कांग्रेसी नेता उनसे ईर्ष्या करने लगे तो सुभाष बाबू ने स्वयं अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और फॉरवर्ड ब्लाक नामक अलग दल का निर्माण किया । देश भ्रमण में वह विभिन्न दलों के नेताओं से मिले।
उनकी इन गतिविधियों के कारण शीघ्र ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । उपवास आदि रखने के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा । इस पर सरकार ने उन्हें घर पहुंचा दिया और उन्हें नजरबंद कर दिया गया । मन में दृढ़ निश्चय था सो सुभाष बाबू पठान का वेश बदल कर काबुल होते हुए जर्मनी पहुंचे तथा ' आजाद हिंद फौज ' की नींव रखी ।
देश की स्वतंत्रता के लिए सैंकड़ों युवकों ने रक्त से हस्ताक्षर कर सुभाष बाबू को दिए । उन्होंने उनसे वादा किया ' तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा ' । विश्व के 19 राष्ट्रों ने आजाद हिन्द फौज को मान्यता दी । ' जय हिन्द ' तथा ' दिल्ली ' ' चलो ' के नारों के साथ उन्होंने इस सेना का नेतृत्व किया ।
1945 में भारत माता की गुलामी की बेड़ियां काटने के लिए भारत पर दूसरा बड़ा आक्रमण किया गया । परन्तु जर्मनी की हार के साथ ही इस सेना का भाग्य बदल गया । कई सैनिक गिरफ्तार कर लिए गए । सहयोगियों ने कहा , " नेताजी आप किसी गुप्त स्थान पर चले जाइए तो किसी प्रकार संघर्ष जारी रहेगा । "
इनका मन तो नहीं मान रहा था परंतु विवशतावश नेता जी वायुयान द्वारा जापान जा रहे थे कि मार्ग में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया । एक महान देशभक्त देश के लिए शहीद तो हो गया परन्तु आज भी कुछ लोग इस पर विश्वास नहीं करते ।
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