सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर सन् 1918
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खगोल भौतिकी में सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर को ' चंद्रशेखर लिमिट ' के नाम से याद किया जाता है । उनका जन्म अविभाजित भारत में लाहौर में हुआ । सन् 1918 में उनका परिवार मद्रास में आकर बस गया । यहां उन्होंने हिंदू स्कूल और प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाई पूरी की।
इसी कॉलेज में उनके चाचा नोबेल पुरस्कृत सी.वी. रमण भी पढ़ा करते थे । स्कॉलरशिप हासिल करने के बाद उन्होंने कैम्ब्रिज में दाखिला ले लिया । इस दौरान उन्होंने ' वाइट डॉर्फ ' पर शोध किया और यह बताया कि सितारों के अंतिम समय में इलैक्ट्रोन कैसे क्वांटम मैकेनिकल गुणधर्मों को नियंत्रित करते हैं ।
उन्होंने अपने शोध कार्य में लिखा कि कुछ कम भार वाले तारे ही वाइट डॉर्फ बनते हैं लेकिन बड़े आकार और भार के सितारे नहीं । उनके अनुसार हमारे सूर्य से 1.44 गुना भार वाले तारे सिकुड़ कर पृथ्वी के आकार से भी छोटे हो जाते हैं।
उसके बाद उनमें विस्फोट होता है जैसे हजारों परमाणु बमों को एक साथ लाकर उड़ा दिया गया हो और तभी ' सुपरनोवा ' का जन्म होता है । वाइट डॉर्फ से जुड़ी इस 1.44 गुणा भार की सीमा को ही अब ' चंद्रशेखर - सीमा ' कहा जाता है । सन् 1937 में वह अमेरिका आ गए और शिकागो विश्वविद्यालय में उन्हें नौकरी मिल गई । बस , तब से वह अमेरिका के ही होकर रह गए ।
सन् 1944 में यहां के मुख्य प्रोफैसर नियुक्त हुए । यहां आकर उन्होंने शोध के लिए एक भिन्न क्षेत्र चुना । अब वह तारा समूहों की गतिविधियों का अध्ययन करने लगे । उनके अध्ययन के परिणामस्वरूप यह पता लगाया जा सकता है कि तारा समूहों को वर्तमान स्थिति में आने के लिए कितना समय लगा । उन्होंने ब्लैक होल पर अध्ययन किया ।
आकाश के नीलेपन और गतिशील पदार्थों का अध्ययन भी उन्होंने किया । उन्होंने ब्लैक होल पर गुरुत्वाकर्षण और इलैक्ट्रोमैगनेटिक क्षेत्र का प्रभाव जानने का प्रयास भी किया। सन् 1983 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया,
जबकि उनके दो चीनी विद्यार्थियों को सन् 1957 में ही भौतिकी में नोबेल पुरस्कार मिल चुका था । इसके अलावा उन्हें अन्य कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं । 21 अगस्त 1995 को अमेरिका के शिकागो में उनका निधन हो गया ।
प्रफुल्ल चंद्र राय ( 2 अगस्त , 1861 )
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प्रफुल्ल चंद्र राय का जन्म जैस्सोर जिले के रारुली गांव ( अब बंगलादेश ) में हुआ था । अच्छी शिक्षा हासिल करने के इरादे से वह कोलकाता आ गए । शुरू से ही उन्हें रसायनशास्त्र में दिलचस्पी थी । उन्हें गिलक्रिस्ट से स्कॉलरशिप मिली और उच्च शिक्षा के लिए वह इंगलैंड गए और एडिनबरा विश्वविद्यालय में दाखिला लिया ।
सन् 1887 में उन्होंने आर्गेनिक रसायन शास्त्र में डिग्री ली । भारत लौटने के बाद वह कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में सहायक प्रोफैसर नियुक्त हुए । साथ ही वह विभिन्न रसायनों के निर्माण की दिशा में प्रयोग भी करते रहे । जल्द ही उन्होंने बंगालl कैमिकल एंड फार्मास्युटिकल वर्क्स की स्थापना की । आज यह देश की सबसे बड़ी रासायनिक फर्म है ।
सन् 1896 में उन्होंने मर्क्यूरस नाइट्रेट तैयार किया । यह एक बड़ी उपलब्धि थी । उसके बाद उन्होंने विभिन्न नाइट्रेट बनाए। जब उन्होंने मवेशियों की अस्थियों से सोडे का फॉस्फेट बनाया तो सारे देश में लोग उन्हें जानने लगे । एक नए उद्योग की स्थापना हुई ।
अन्य लोग भी उनके बताए रास्ते पर चलने लगे । कई विश्वस्तरीय वैज्ञानिकों ने उनकी प्रशंसा की । सन् 1904 में बंगाल सरकार ने उन्हें विश्व की प्रसिद्ध प्रयोगशालाएं देखने के लिए भेजा । वह आयुर्वेद का ज्ञान भी रखते थे और उस पर उन्होंने ' हिस्ट्री आफ हिंदी कैमिस्ट्री ' नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ भी लिखा । इसके अलावा उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं ।
विज्ञान के साथ - साथ वह देश की परिस्थितियों पर भी बराबर नजर रखते थे । आजादी की लड़ाई में भी वह शरीक रहे । वह हमेशा खादी पहना करते थे । सादा जीवन जीते और स्वदेशी का प्रचार करते । उनके मित्रों में गांधी जी भी शामिल थे । सन् 1922 में बंगाल में बाढ़ आई तो वह पीड़ित लोगों की सेवा में रात - दिन लगे रहे ।
वह विभिन्न सरकारी पदों पर कार्यरत । सन् 1917 में आल इंडिया सोशल रिफार्म कांफ्रेंस के अध्यक्ष बनाए गए । सन् 1920 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष बने । उन्हें देश - विदेश के कई पुरस्कार मिले । सन् 1919 में तो उन्हें ' सर ' का खिताब भी दिया गया ।
26 जून , 1944 को कोलकाता में उनका देहांत हो गया ।
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