मंदिर बनाम कुटिया
आठवीं सदी में जिन राजाओं ने कश्मीर पर राज किया उनमें से एक चंद्रापीड वज्रादित्य था । वह कर्कोट वंश का था । उसका राज्यकाल छोटा ही था - आठ साल , आठ महीने का। वह अपने छोटे भाई और उत्तराधिकारी मुक्तापीड ललितादित्य की तरह पराक्रमी नहीं था , जिसने कश्मीर के बाहर लंबी लंबी विजय यात्राएं कीं और कन्नौज के राजा यशोवर्मन तक को हराया ।
फिर भी कश्मीर की प्रजा चंद्रापीड की मृत्यु के बाद भी लंबे समय तक उसे आदर्श राजा के रूप में याद करती रही । इसलिए कि वह न्यायपरायण था
मजदूर ने उत्तर दिया , " राजन , महलों से सजी यह राजधानी आपके लिए जो कुछ है वही मेरे लिए यह कुटिया है । मां की तरह यह मेरे जन्मकाल से मेरे सारे सुख - दुख की साक्षी है । इसका गिराया जाना मुझसे देखा नहीं जाएगा।
और कानून के शासन का कायल था , जबकि उस जमाने में अधिकांश राजा स्वेच्छाचारी हुआ करते थे । कश्मीर के इतिहासकार कल्हण ने अपनी पुस्तक ' राजतरंगिणी ' में चंद्रापीड वज्रादित्य को बड़ी इज्जत के साथ याद किया है और उसकी न्यायपरायणता के दो किस्से दिए हैं ।
उनमें से एक इस प्रकार है : राजा चंद्रापीड ने त्रिभुवनस्वामी केशव ( तीनों लोकों के स्वामी विष्णु ) का मंदिर बनवाने का निश्चय किया । अच्छी जमीन इस काम के लिए चुनी गई और नींव की खुदाई शुरू कर दी गई लेकिन अचानक एक अड़चन पैदा हो गई । उस जमीन के एक हिस्से में किसी मजदूर की कुटिया थी ।
वह उसे खाली करने से इंकार करने लगा और मंदिर का काम अटक गया । राजकर्मियों ने इसकी शिकायत राजा से की । पर राजा चंद्रापीड ने उनका पक्ष लेने की बजाय उन्हें डांटा कि सारी बातें पक्के तौर पर तय किए बिना काम क्यों शुरू कर दिया गया? अब या तो मंदिर का काम बंद कर दो या अन्य किसी स्थान पर मंदिर बनाओ ।
किसी दूसरे की जमीन हड़प कर मैं अपने पुण्यकर्म को कलंकित नहीं करूंगा । अगर राजा ही धर्म विरुद्ध कार्य करेगा तो न्याय के रास्ते पर भला कौन चलेगा ? इस तरह उसने स्पष्ट कर दिया कि इस मामले में वह अपने अधिकार का उपयोग नहीं करेगा ।
राजा चंद्रापीड का यह रुख देख कर मंत्रियों ने एक दूत उस मजदूर के पास भेजा । दूत ने लौट कर चंद्रापीड से कहा , " महाराज , मजदूर आपसे मिलना चाहता है । " अगले दिन राजा ने मजदूर को महल में बुलवाया । और उससे पूछा , " क्या तुम्हीं हमारे पुण्यकार्य में अड़चन डाल रहे हो ? अगर तुम कहो तो तुम्हारी कुटिया के बदले बढ़िया मकान दिया जाएगा या चाहो तो नकद पैसा ले लो । "
मजदूर ने उत्तर दिया , " राजन , महलों से सजी यह राजधानी आपके लिए जो कुछ है वही मेरे लिए यह कुटिया है । मां की तरह यह मेरे जन्मकाल से मेरे सारे सुख - दुख की साक्षी है । इसका गिराया जाना मुझसे देखा नहीं जाएगा । अपना घर छिन जाने से जो दुख होता है उसे या तो अपने विमान से वंचित देवता समझ सकता है या अपने राज्य से वंचित राजा समझ सकता है ।
फिर भी यदि आप स्वयं मेरे यहां पधारें और मुझसे यह कुटिया मांगें तो सदाचार के नियम के अनुसार मैं इसे आपको अर्पित कर दूंगा । " इस आश्चर्यजनक कहानी को आगे बढ़ाते हुए कल्हण ने लिखा है : मजदूर के इस उत्तर पर राजा चंद्रापीड अगले दिन उसके द्वार पर गया और उसे धन देकर उससे कुटिया स्वीकार की।
मजदूर हाथ जोड़ कर बोला , " राजन आपका कल्याण हो । चिरकाल तक आप इसी तरह लोगों को धर्म युक्त आचरण का मार्ग दिखाते रहें और उस मार्ग पर लोगों की श्रद्धा बनी रहे । " यह अनोखा प्रसंग समाप्त करते हुए । कल्हण कहता है , "निष्कलंक आचरण वाले राजा चंद्रापीड ने ( मंदिर बनवा कर और उसमें ) त्रिभुवन स्वामी केशव की प्रतिष्ठा करके पृथ्वी को पवित्र किया । "
कल्हण के इस वर्णन में एक छोटी - सी विसंगति है । उसने लिखा है कि राजा चंद्रापीड ने धन देकर मजदूर से कुटिया स्वीकार की । परंतु अपनी कुटिया बेचने से मजदूर ने पहले ही इंकार कर दिया था । इससे यही मानना ठीक होगा कि राजा ने मजदूर से कुटिया दान में ली और बाद में उसे इनाम - इकराम दिया । - नारायण दत्त
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