धूमकेतु (Comet) किसे कहते हैं ?
हेमंत ने पूछा , " मैम , धूमकेतु हम किसे कहते हैं ? " मैम ने उत्तर दिया , " धूमकेतु किसी ग्रह या चंद्रमा की तरह सूर्य के परिवार अर्थात सौर प्रणाली का सदस्य होता है । यह ठोस पदार्थों के टुकड़ों के एक बड़े समूह से बना होता है , जिसमें गैसें शामिल होती हैं ।
दूरबीन से देखने पर हमें धूमकेतु का एक सिर तथा पूंछ दिखाई देती है , इसीलिए इसे पुच्छल तारा भी कह दिया जाता है । धूमकेतु का सबसे चमकदार भाग इसका ' सिर ' होता है । ' सिर ' का मध्य भाग सबसे भारी पदार्थों से बना होता है और इसे ' न्यूक्लियस ' कहा जाता है ।
न्यूक्लियस के इर्द - गिर्द के भाग को ' कोमा ' कहा जाता है । यह बादल की धुंधली परत की तरह होता है । जो 1,50,000 मील या इससे भी अधिक फैला हुआ हो सकता है । धूमकेतु की पूंछ बहुत पतली गैसों तथा महीन कणों से बनी होती है । यह पूंछ तब बनती है जब सौर हवाओं के कारण इसकी गैसें पीछे की ओर उड़ जाती हैं ।
जब कोई धूमकेतु पहले दिखाई देता है तो रोशनी का एक नन्हा बिंदु लगता है हालांकि इसका व्यास हजारों मीलों में हो सकता है । धूमकेतु की पूंछें आकार तथा आकृति में अलग अलग तरह की होती हैं । कुछ छोटी तथा कुछ बड़ी होती हैं । आमतौर पर उनकी लम्बाई कम से कम 50,00,000 मील होती है ।
कई बार तो ये 10,00,00,000 मील लम्बी होती हैं । कुछ धूमकेतुओं की पूंछ बिल्कुल नहीं होती । खगोल वैज्ञानिकों ने लगभग 1000 धूमकेतुओं को सूचीबद्ध किया है लेकिन सैंकड़ों - हजारों ऐसे धूमकेतु हमारी सौर प्रणाली में हो सकते हैं , जिन्हें अभी देखा नहीं गया । "
क्या धूमकेतु ब्रह्मांड में जीवन के बीज बोते हैं ?
लगभग 2500 साल पहले , यूनानी दार्शनिक एनैक्सागॉरस ने यह विचार प्रतिपादित किया कि पृथ्वी पर जीवन अंतरिक्ष से आया है । इसे ' पैनस्पर्मिया ' का सिद्धांत कहते हैं । पैनस्पर्मिया का अर्थ है । हर जगह बीज ' ।
पैनस्पर्मिया के अनुसार जीवन के बीज , जीवाणुओं के सूक्ष्म रूप में पूरे ब्रह्मांड में मौजूद हैं और पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत तब हुई जब ये बीज हमारे ग्रह पर आ गिरे । इस सिद्धांत के समर्थक तो हैं लेकिन ज्यादातर वैज्ञानिकों को यह विश्वास करने में कठिनाई होती थी कि बैक्टीरिया अंतरिक्ष में होने वाले विकिरणों के प्रहार से बच सकते हैं ।
1970 के दशक में ब्रिटिश खगोलशास्त्रियों फ्रेड हॉयल तथा चन्द्रा विक्रमसिंघे ने प्रतिपादित किया कि जीवाणु धूमकेतुओं पर सवार होकर ब्रह्मांड में घूमते हैं । उन्होंने दिखाया कि धूमकेतु उन पर सवारी करने वाले जीवाणुओं को विकिरण तथा अन्य खतरों से पर्याप्त सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं ।
' पैनस्पर्मिया ' का सिद्धांत अभी सिद्ध नहीं हो पाया है और उसे वास्तव में प्रमेय कहना चाहिए । लेकिन पिछले कुछ दशकों में ये दो ब्रिटिश तथा अन्य वैज्ञानिक इस सिद्धांत को लगभग कल्पना के क्षेत्र से निकाल कर संभावना के क्षेत्र में ले आए हैं ।
भविष्य में जब भी वैज्ञानिक धूमकेतुओं का अध्ययन करेंगे तो उनके मन में यह विचार भी आएगा कि क्या हम बर्फ के इन्हीं पिंडों के कारण अस्तित्व में आए हैं ?
क्या धूमकेतु में विस्फोट हो सकता है ?
रेशम ने पूछा , “ मैम , क्या धूमकेतु में विस्फोट हो सकता है ? " मैम ने उत्तर दिया , “ धूमकेतुओं में विस्फोट नहीं होता , लेकिन वे टूट सकते हैं । एक ऐसा धूमकेतु था जिसका कई बार अवलोकन किया गया , लेकिन 1846 में यह दो भागों में टूट गया ।
इससे धूमकेतुओं का एक जोड़ा बन गया और फिर ये दो भाग इतने छोटे भागों में टूट गए कि उन्हें देखना भी मुश्किल था । धूमकेतुओं के टूटे हुए टुकड़े ' उल्काएं ' कहलाते हैं । जब धूमकेतु टूटते हैं तो उनके लाखों टुकड़े अंतरिक्ष में घूमना जारी रखते हैं । जब वे पृथ्वी के वातावरण में से होकर गुजरते हैं तो गर्मी के कारण पूरी तरह जल जाते हैं ।
केवल बहुत बड़े टुकड़े ही पृथ्वी तक पहुंचते हैं । " इस तरह हम कह सकते हैं कि हालांकि इनमें विस्फोट नहीं होता लेकिन ये गायब हो जाते हैं । ये छोटे - छोटे टुकड़ों में टूट कर गायब होते हैं और फिर उल्का धूल के रूप में अपनी कक्षा में चक्कर लगाते रहते हैं । "
टूटते हुए सितारे क्या है ?
जागृति ने पूछा , “ मैम , सितारे टूट कर कैसे गिरते हैं ? क्या वे छोटे टुकड़ों में टूट कर गिर पड़ते हैं ? " मैम ने जानकारी दी , “ सितारे कभी नहीं गिरते । टूट कर गिरते हुए दिखाई देने वाले सितारे दरअसल उल्काएं होती हैं ।
उल्काएं धूमकेतुओं के टूटे हुए टुकड़े हैं । जब ये उल्काएं हमारी पृथ्वी के वातावरण की परिधि में आती हैं तो हम उन्हें इसलिए देख सकते हैं क्योंकि ये अपने पीछे रोशनी की एक लम्बी लकीर छोड़ती हैं । ऐसा उनकी सतह पर हवा के घर्षण से उत्पन्न गर्मी के कारण होता है ।
अधिकांश उल्काएं काफी छोटी होती हैं , एक पिन के सिरे के आकार की । केवल बड़े आकार की उल्काएं पृथ्वी तक पहुंचती हैं , जबकि अन्य पृथ्वी के वातावरण में से गुजरते समय उत्पन्न गर्मी के कारण नष्ट हो जाती हैं । जब उल्का का कोई टुकड़ा पृथ्वी पर पहुंच जाता है तो उसे उल्कापिंड कहा जाता है ।
पृथ्वी पर पाए गए अब तक के सबसे बड़े उल्कापिंडों का भार 60 से 70 टन के बीच है और ये अफ्रीका में पाए गए । उल्कापिंड मुख्यतः दो तरह के होते हैं - धातु के बने उल्कापिंड तथा पथरीले उल्कापिंड । मैटेलिक या धातु के बने उल्कापिंड निक्कल तथा लोहे के बने होते हैं
जबकि पथरीली उल्काएं खनिजों से बनी होती हैं तथा पत्थर के टुकड़ों जैसी दिखती हैं । हर रोज दिन - रात हजारों की संख्या में उल्कापिंड पृथ्वी पर गिरते हैं लेकिन आमतौर पर वे महासागरों तथा झीलों में गिरते हैं । "
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