पांच वर्ष के बालक ध्रुव ने तपस्या तथा भक्ति द्वारा भारत के इतिहास में ध्रुव तारे के समान अचल पद प्राप्त किया । प्राचीन काल में उत्तानपाद नाम के एक बहुत बड़े राजा हुए हैं। उनकी दो रानियां थीं। बड़ी का नाम सुनीति और छोटी का सुरुचि था।
सुनीति स्वभाव से धीर और गंभीर थी किंतु सुरुचि के कठोर व्यवहार के सामने वह अपने आप को असमर्थ पाती थी । सुरुचि छोटी होने पर भी पटरानी बनी हुई थी । राजा के सारे कार्यों की बागडोर उसके हाथ में थी । दोनों रानियों के एक एक पुत्र था । सुनीति के पुत्र का नाम 'ध्रुव' था तथा सुरुचि के पुत्र का नाम था 'उत्तम'
रानी सुरुचि के वश में होने के कारण राजा सुनीति का तिरस्कार करते थे और पुत्र ध्रुव से भी प्यार नहीं करते थे । सुरुचि चाहती थी कि उसका पुत्र उत्तम राज्य का उत्तराधिकारी बने । इसलिए वह ध्रुव और सुनीति को महल में नहीं रहने देती थी ।
उसे इस बात का डर था कि यदि वे महल में रहेंगे तो राज्य की प्रजा यह कभी न भूलेगी कि सुनीति के बड़ी रानी होने के कारण उसका पुत्र ही राज्य का सच्चा उत्तराधिकारी है । परिणामस्वरूप बड़ी रानी होते हुए भी सुनीति को साधारण लोगों की तरह जीवन व्यतीत करना पड़ता था । राजा कभी उसके पास नहीं जाते थे ।
एक दिन महाराज अपने राजभवन में थे और रानी सुरुचि का पुत्र उनकी गोद में बैठा हुआ था । इतने में सुनीति का पुत्र वहां जा पहुंचा और अपने भाई उत्तम को पिता की गोद में बैठा देख वह स्वयं भी पिता की गोद में बैठने की इच्छा करने लगा । उसने उसके पास जाकर कहा , " पिता जी मैं भी आपकी गोद में बैठना चाहता हूं । मुझे भी गोद में ले लीजिए।
उस समय ध्रुव पांच वर्ष का था । " ध्रुव के इस आग्रह को देखकर सुरुचि ईर्ष्या और क्रोध में आ गई और ध्रुव को दुत्कार कर यह कहते हुए भगा दिया कि सुनीति का बेटा होकर मेरे भाग्यशाली पुत्र को समता करना चाहता हैं ? बेचारा बालक चकित होकर पिता की ओर देखने लगा परन्तु उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं ।
ध्रुव को अत्यंत दुख हुआ । उसके गालों पर आंसू बहने लगे । वह सिंहासन की सीढ़ियों से उतर पड़ा । वह अपनी माता सुनीति के पास पहुंचा और उसके गले से लग कर सिसक सिसक कर रोने लगा और सुनीति से पूरी घटना का वर्णन कर दिया ।
इस घटना को सुनकर सुनीति ने अपने आंसुओं को पी लिया और पुत्र को शांत करते हुए उसने कहा- बेटा केवल भगवान की कृपा ही हमारी हालत सुधार सकती है । हमें केवल उसकी ही शरण में जाकर अपनी कठिनाइयों को दूर करने की प्रार्थना करनी चाहिए । बालक ध्रुव के हृदय पर माता के वचनों का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा ।
उसने परम पिता परमात्मा की शरण में जाने का निश्चय कर लिया । उसी दिन उस वीर बालक ने घर बार छोड़कर वन का रास्ता लिया । ईश्वर के दर्शन की तीव्र लालसा से भरकर वह ध्यान लगाने के लिए मधुवन की ओर चल पड़ा । वहां जाकर ध्रुव ने घोर तप करना आरम्भ कर दिया और अपने हृदय में योगियों की भांति परम पिता परमात्मा का दिव्य दर्शनकिया।
उधर ध्रुव के घर छोड़ने पर महाराज उत्तानपाद की भी आंखें खुलीं और वह अपने किए पर पछताने लगे । उन्होंने ध्रुव की बहुत खोज की पर उसका कहीं पता न चला । जब ध्रुव अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करके लौटा तो राजा ने अपने मंत्रियों , राज्य के गण्यमान्य लोगों को साथ लेकर बाजे - गाजे के साथ ध्रुव की अगवानी की ।
ध्रुव को देखते ही उन्होंने उसे प्रेमपूर्वक गले लगा लिया । तब ध्रुव ने भी आदरपूर्वक अपनी सौतेली मां सुरुचि के चरणों का स्पर्श किया । उसने उसे ऊपर उठा कर आशीर्वाद दिया । उसकी मां सुनीति के आनंद की कोई सीमा न रही । उत्तानपाद की आज्ञानुसार ध्रुव को सम्मानित किया गया । नागरिकों ने उस पर पुष्पों की वर्षा की ।
इस प्रकार सबका सम्मान और आशीर्वाद पाकर ध्रुव ने नगर में प्रवेश किया । महाराज ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया और तप करने वन में चले गए । ध्रुव का छोटा भाई उत्तम एक दिन शिकार करते हुए यक्षों के हाथों मारा गया और उसकी माता सुरुचि इस दुख को सहन न कर सकी और विहाल होकर एक जलते हुए जंगल में घुस गई ।
इस प्रकार वह भी चल बसी । ध्रुव ने बहुत काल तक न्यायपूर्वक राज्य किया और वृद्ध होने पर अपने पुत्र को राज्य देकर बुद्रिकाश्रम में तपस्या करने चले गए । अपनी अटल प्रतिज्ञा से ध्रुव इतने प्रसिद्ध हुए कि लोग कहते हैं कि उन्हीं के नाम पर आकाश में स्थित एक तारे का नाम ध्रुव तारा पड़ा । ( सार्वदेशिकसाप्ताहिक)
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