कथनी और करनी
नगर के बाहर एक बाग था । बाग में प्राचीन विशाल शिव मंदिर था । वहां रोज पांच मित्र आकर बैठते और अपने सुख दुख की बातें करते थे । उन पांच में से दो मित्र तो असमर्थ थे और तीन शारीरिक रूप से अपंग थे ।
एक दिन उन्होंने बातों ही बातों में अपनी - अपनी मजबूरी पर रोना शुरू कर दिया । उनको ईश्वर से शिकायत थी कि उसने उन्हें अपंगता और असमर्थता प्रदान करके उनके साथ घोर अन्याय किया है । यदि औरों की तरह उन्हें भी समर्थ बनाया होता तो वे भी अपने हृदय में दम तोड़ती इच्छाओं को पूरा करते और समाज का बड़ा कल्याण करते ।
उनमें से सबसे पहले अंधा साथी बोला- " सुना है आजकल बड़े पाप हो रहे हैं । चारों ओर हिंसा , द्वेष और व्यभिचार का बोलबाला है । यदि भगवान ने मुझे भी नेत्र दिए होते तो मैं कभी भी बुराई न पनपने देता । सही काम करता और दूसरों को भी सही काम करने की शिक्षा देता ।
"अंधे के साथ बैठा व्यक्ति जो कुबड़ा होने के साथ - साथ लंगड़ा भी था , बोला , ' अगर मुझे भी परमात्मा ने स्वस्थ और निर्दोष शरीर प्रदान किया होता तो लोगों की भलाई के मैं ऐसे - ऐसे काम करता कि लोग मेरी खूब प्रशंसा करते और सम्मान देते ।
" तीसरा दुबला - पतला बीमार - सा व्यक्ति कराहते हुए बोला , " यदि मैं बलशाली होता तो समाज के अत्याचारियों को ऐसा सबक सिखाता कि आगे से वे किसी पर जुल्म ढाने का दुस्साहस न करते । "
चौथा व्यक्ति कंगाल था । उसने कहा , अगर परमेश्वर ने मुझे खूब धन दौलत दी होती तो मैं दीन - दुखियों , अपाहिजों और असहायों की दिल खोलकर सहायता करता और उन्हें किसी तरह की कमी न रहने देता ।
" पांचवा व्यक्ति मूर्ख था बोला , " यदि भगवान ने मेरे मस्तिष्क में ज्ञान का भंडार भर दिया होता तो सच कहता हूं कि मैं संसार में ज्ञान की गंगा बहा देता । लोगों में प्यार और भाईचारे की भावना जाग्रत करता । "
संयोग की बात है उसी समय उस ओर शिव - पार्वती कहीं जा रहे थे । कुछ देर के लिए वे मंदिर में विश्राम करने के लिए रुक गए । मां पार्वती ने उन पांचों की बात सुनी । उन्होंने भगवान शिव से कहा , " स्वामी सामने बैठे इन पांचों व्यक्ति के विचार आपने भी सुने कितने उत्तम विचार हैं ।
समाज के प्रति इनमें कुछ करने की लगन है परंतु अपनी असमर्थता और अपंगता के कारण ये विवश हैं । आप तो करुणा के सागर हैं । इन्हें इच्छित आशीर्वाद देकर समर्थता प्रदान कीजिए । ये अच्छे समाज के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान कर सकेंगे ।
" पार्वती जी की बात सुनकर शिव जी तनिक मुस्कराए और बोले- " देवी ! अब समय बदल चुका है । जैसा तुम सोच रही हो , वैसा अब नहीं है । अब मानव की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है । वह जो कहता है उसे करता नहीं है । हर कोई अपनी स्वार्थसिद्धि के पीछे है ।
कोई किसी के कल्याण की नहीं सोचता , सभी को अपनी पड़ी है। " किंतु पार्वती जी नहीं मानीं । उन्होंने उन पांचों व्यक्तियों को इच्छित स्थिति प्रदान करने के लिए हठ पकड़ ली । शिवजी को झुकना ही पड़ा । ' ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा । " कह कर उन्होंने पांचों की मनोकामना पूरी होने का वरदान दे दिया ।
देखते ही देखते सबकी इच्छा फलीभूत हो गई । अंधे को नेत्र , कुबड़े लंगड़े को स्वस्थ शरीर , कंगाल को धन - दौलत , निर्बल को और सुंदर शक्ति तथा मूर्ख को ज्ञान का भंडार मिल गया । जब परिस्थिति बदली तो उनके विचार भी बदल गए . अंधा दुनिया की चकाचौंध देख कर ठगा - सा रह गया ।
अंधी आंखें जो अब तक दुनिया के अद्भुत नजारों से अनजान थीं , वह उन्हें तृप्त करने में लग गया । वासनाओं ने उसे घेर लिया । कुबड़ा लंगड़ा पुरुष स्वस्थ शरीर का मालिक बन गया । अब तक दुनिया उसके लिए एक निश्चित स्थान तक ही सिमटी हुई थी परंतु अब कूबड़ और पैर दोनों ठीक हो गए थे ।
वह सैर - सपाटे के लिए लम्बी यात्रा पर निकल पड़ा । घूमने फिरने और दुनिया देखने के अलावा उसके पास दूसरे कामों के लिए समय ही नहीं था । धनी व्यक्ति अपने लिए कार , कोठी , सुंदर पत्नी और दूसरे ठाठ बाट जुटाने और व्यवसाय को बढ़ाने में उलझ गया ।
बलवान व्यक्ति अपनी शक्ति के घमंड में दूसरों को आंतकित करके उनसे धन ऐंठने लगा । विद्वान व्यक्ति अपनी बुद्धि और चतुराई के बल पर लोगों को उल्लू बना कर उनसे मुंहमांगा पैसा लेने लगा । कुछ समय पश्चात शिव पार्वती फिर उस नगर से होकर गुजरे ।
अचानक नीलकंठेश्वर को उन पांचों व्यक्तियों का ध्यान हो आया। वह पार्वती जी से बोले , " देवी , उन अपंग और असमर्थ लोगों की करनी को नहीं देखोगी जो इच्छित स्थिति पाने पर बडे - बडे कार्य करने की प्रतिज्ञा कर रहे थे ? " अवश्य स्वामी ! देखें उन्होंने प्रतिज्ञा किस ढंग से निभाई है ! " पार्वती जी बोलीं ।
लेकिन जब पार्वती जी ने देखा कि बड़ी - बड़ी डींगें हांकने वाले सब कुछ भूल कर केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति में लगे हुए हैं तो उन्हें बड़ा पछतावा और दुख हुआ । पार्वती जी को इस तरह दुखी देख कर शिवजी बोले - " देवी , दुखी होने आवश्यकता नहीं है ।
ये पांचों व्यक्ति ही केवल ऐसे नहीं हैं जो अपने वचन से फिर गए हों , यहां देश के कर्णधार भी ऐसे ही हैं । वे भी कहते कुछ और करते कुछ और हैं । दया , धर्म , प्रेम और भाईचारा तो धीरे - धीरे लुप्त हो रहा है । बस अब तो स्वार्थ पनप रहा है । " परशुराम संबल
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