बहुत समय पहले की बात है । असम के जंगलों में एक गांव था सिरकटा । कहते हैं वहां एक बार राक्षसों ने हड्डियों के बने हथियारों से समस्त गांव के निवासियों के सिर काट दिए थे । उस गांव का व्यापारी धन्नालाल जब परदेस से कमाई करके गांव लौटा तो सुनसान गांव देख कर दंग रह गया । भयभीत - सा धन्नालाल गांव के मंदिर में देवी के चरणों में पहुंचा ।
रोते हुए उसने देवी से पूछा , " मां , यह सब क्या हो गया ? ” ' चिंता मत करो वत्स , तुम्हारा परिवार सुरक्षित है । तुम्हारी पत्नी बच्चों सहित मायके गई हुई है । यह घटना तो उसके मायके जाने के बाद हुई है । " देवी बोली । ' अब मैं क्या करूंगा मां ? इन राक्षसों से कैसे पीछा छूटेगा ? " " सुनो , इन राक्षसों को नीचे की ओर देखने की आदत है । एक - दो रोज में राक्षसों का सरदार यहां अपनी बस्ती बसाने आएगा ।
तुम गांव के द्वार को त्रिभुज जैसा बना दो । उसे नीचे की ओर चौड़ा दरवाजा दिखेगा । त्रिभुज का ऊपरी संकरा मुंह नहीं देख पाने कारण वह उस त्रिभुजाकार दरवाजे से टकरा कर मर जाएगा । " देवी ने समझाया । दूसरे ही दिन धन्नालाल ने त्रिभुज के आकार का दरवाजा बनवा दिया । एक दिन राक्षसों का सरदार तेजी से दौड़ता हुआ गांव की ओर आया तथा उसका सिर त्रिभुजाकार दरवाजे के ऊपरी हिस्से में फंस गया ।
राक्षस की वहीं मौत हो गई । डर के मारे बाकी राक्षस वह जंगल छोड़ कर भाग गए । खुशी - खुशी धन्नलाल देवी मां के चरणों में प्रसाद चढ़ाने गया । देवी मां ने उसे समझाया , " धन्नालाल ! मेरे त्रिशूल से तांबा लेकर त्रिभुज की आकृति के कुछ ताबीज बनवा लो । जो इन ताबीजों को पहनेगा , उसके सामने आते ही राक्षस झुलस जाया करेगा । इससे तुम्हारा परिवार सुरक्षित रहेगा ।
" देवी मां को धन्यवाद देकर धन्नालाल मंदिर से बाहर आया । कुछ दिनों के बाद उसने गांव के पास नई बस्ती बसा दी और परिवार वालों के गले में त्रिभुज के आकार के ताबीज डाल दिए । धन्नालाल का परिवार पीढ़ी - दर - पीढ़ी " उन ताबीजों को पहनता रहा । काफी दिन बाद जब परिवार में एक बालक जन्मा तो बालक का नाम रखा गया त्रिभुवन । धीरे - धीरे त्रिभुवन बड़ा होने लगा ।
त्रिभुवन अक्सर अपने दादा जी से उस ताबीज का रहस्य पूछता , किन्तु उसकी बात को हर बार टाल दिया जाता था । रात को चारपाई पर लेटे - लेटे त्रिभुवन घंटों तक सोचता रहता । कई बार उसे सपने में ऐसा लगता जैसे कि वह जंगल में बरगद के पेड़ के पास खड़ा है तथा पेड़ से आवाज आती है , " सो मत जाना ... सो मत जाना । " घबरा कर वह नींद से उठ जाता है । एक दिन उसने मां को कहा कि उसे सपने में ' कोई आवाज सुनाई पड़ती है— ' सो मत जाना ।
' मां ने उसे प्यार से समझाया कि दिन की बातें रात को सपने में दिख जाती हैं । त्रिभुवन मां के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ । उसने आश्रम में अपने गुरुदेव से पूछा तो उन्होंने कहा , " बेटा त्रिभुवन , तुम्हें किसी बात के लिए चौकस रहने की जरूरत है । सो मत जाना का अर्थ है - होश - हवास में रहना। कभी संकट आए तो घबराना मत बल्कि हिम्मत रखना । " एक दिन त्रिभुवन के पशु जंगल में चरते चरते दूर चले गए ।
त्रिभुवन भी अपने पशुओं को ढूंढते - ढूंढते वहां जा पहुंचा । वहां पहली बार उसने एक विशाल गुफा देखी । वह थक गया था इसलिए गुफा से दूर जाकर एक बरगद के पेड़ की छाया में सुस्ताने लगा । तभी गुफा के अंदर सो रहे बूढ़े राक्षस को कुछ गर्मी - सी महसूस हुई । बूढ़ा राक्षस समझ गया कि यह ताप त्रिभुवन के पुराने पड़ चुके ताबीज के कारण है , अन्यथा तो इस ताबीज के ताप से वह अब तक जल चुका होता ।
यह बूढ़ा राक्षस उस राक्षस सरदार का बेटा था , जो बहुत पहले धन्नालाल के त्रिभुजाकार दरवाजे में मारा गया था । अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए बूढ़ा गुफा से बाहर आया । वह बूढ़ा मायावी राक्षस एक सांप में बदल गया और त्रिभुवन के पैर में डंस कर गायब हो गया । त्रिभुवन को सांप के जहर के कारण मूर्छा सी आने लगी । वह जमीन पर लेट गया । जहर के असर से उसे नींद आ रही थी ।
उसका शरीर ढीला पड़ता जा रहा था , किन्तु त्रिभुवन ने हिम्मत जुटाई और सोया नहीं । वह जोर - जोर से चिल्लाने लगा , " कोई बचाओ - बचाओ मुझे । ' बहुत देर बाद एक बैलगाड़ी वाला उधर से गुजरा । उसने त्रिभुवन को अपनी बैलगाड़ी पर लाद कर गांव पहुंचा दिया । वैद्य जी ने त्रिभुवन को देख कर हैरानी से कहा , " सांप का काटा व्यक्ति नींद आने से बच नहीं सकता । इसी नींद में वह मौत की नींद सो जाता है ।
इस बहादुर बच्चे ने कमाल की हिम्मत दिखाई है । " वैद्य जी ने दवा देकर त्रिभुवन को ठीक कर दिया । फिर तीसरे दिन त्रिभुवन ने घर वालों को बताया कि " गुफा में बूढ़ा विशाल राक्षस है , उसने मुझे सांप बन कर काटा है । " शाम को सारे परिवार की बैठक हुई । चिंता में डूबे बूढ़े लेकिन अनुभवी दादा जी बोले , " मुसीबत यह है कि ताम्बे के बने ताबीज पुराने हो गए हैं । इनमें अब ज्यादा तपन नहीं है , जो राक्षस को जला सकें ।
" काफी देर सोचने के बाद त्रिभुवन को एक उपाय सूझा , वह बोला , " एक ताबीज से यदि राक्षस नहीं जलता है तो क्यों न हम सब परिवार वाले एक साथ ताबीज पहन कर गुफा में प्रवेश करें । ताबीजों सम्मिलित शक्ति से अवश्य ही राक्षस झुलस जाएगा । " सबको त्रिभुवन का विचार पसंद आया । दूसरे दिन वे सब मायावी राक्षस की गुफा के अंदर पहुंचे । मंत्रपूरित ताबीजों के ताप से नींद से उठने से पहले ही राक्षस जल गया ।
बूढ़े दादा जी ने त्रिभुवन की पीठ थपथपाई । त्रिभुवन बोला , “ दादा जी , धन्यवाद तो उस प्रभु को दीजिए जिसने समय रहते ही सावधान किया कि ' सो मत जाना । "
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