विश्व की प्रधान नदियों में गंगा का विशिष्ट स्थान है । जल देवता की आराधना करने वाले देश भारत में महानदी गंगा मातृदेवी के रूप में प्रतिष्ठित है । मां गंगा हिमगिरि के उच्चतम शिखरों से प्रवाहित होकर वेद की ऋचाओं का गान करती हुई हरिद्वार की पतित पावनी धरती से होती हुई गंगा सागर तक देश के विस्तृत भूभाग को हरियाली प्रदान करती है ।
गंगा देश को अमरत्व प्रदान करती है क्योंकि गंगा जल नहीं है। बल्कि अमृत ही है । अपनी विविध विशेषताओं के कारण ही गंगा आज सम्पूर्ण नदियों की प्रतीक बन गई है । भगवान श्रीराम के पूर्वजों ने गंगा को धरती पर लाने हेतु अपनी चार पीढ़ियों को समर्पित कर दिया तब जाकर राजा भागीरथ ने अपने साठ हजार पूर्वजों की अस्थियों को गंगा में बहाकर मुक्ति दिलाई थी ।
इस प्रकार उन्होंने आर्यवर्त को गंगा के रूप में एक अपूर्व ज्ञान विज्ञान का सोपान प्रस्तुत किया । गंगाजल के संबंध में विश्व के मान्य वैज्ञानिकों का विचार है कि गंगाजल कभी प्रदूषित नहीं होता और न ही इसमें कोई जीवाणु उत्पन्न होते हैं । उनका कहना है कि गंगाजल आयुवृद्धिकारक तथा भीतरी सम्पूर्ण दोषों को नाश करने वाला है ।
हमारे हिन्दू शास्त्रकारों ने तो गंगाजल को साक्षात् औषधि माना है । वैज्ञानिकों के अनुसार गंगा के जल में एक प्रकार का प्रोटैक्टिव तत्व पाया जाता है जो अन्य नदियों के जल में बहुत कम पाया जाता है । इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :
दरस परस मज्जन अर पाना । हरहि पाप गोघात समाना ।।
इस प्रकार हिन्दू - जगत गंगा तथा गंगाजल से सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में उपकृत है तथा इसके साथ भावनात्मक सम्बन्ध रखता है । हिन्दू गंगा के दर्शन , उनके नाम - स्मरण , स्नान और जलपान कर अपने तन - मन को निर्मल करता है । मरणासन्न के मुख में दिया गया एक बूंद गंगाजल स्वर्ग के द्वार को उद्घाटित कर देता है ।
भगवान श्री राम के पूर्वजों ने गंगा को धरती पर लाने हेतु
अपनी चार पीढ़ियों को समर्पित कर दिया तब जाकर
राजा भागीरथ ने अपने साठ हजार पूर्वजों की अस्थियों
को गंगा में बहा कर उन्हें मुक्ति दिलाई थी ।
गंगावतरण कथा के अनुसार ऋषि कपिल के शाप से दग्ध अपने पूर्वज सगर के साठ हजार पुत्रों के लिए भागीरथ ने तपस्या की थी । भगवान शंकर को प्रसन्न कर इस भूमि पर वह गंगा को लाए थे । भगवान शंकर ने स्वर्ग से प्रचंड वेग से उतरी हुई गंगा को पहले अपनी जटा में धारण किया था
और पुनः भागीरथ की प्रार्थना पर गंगा की धारा को भूमि पर छोड़ा था । तब गंगा भागीरथ के रथ का अनुसरण तथा सागर पुत्रों का उद्धार करते हुए पूर्व सागर में जा मिली थी ।
गंगोत्री से लेकर पवित्रतम गंगासागर तक देव प्रयाग , हरिद्वार , ऋषिकेश , कनखल , गढ़मुक्तेश्वर , कन्नौज , हस्तिनापुर , कानपुर , प्रयाग , वाराणसी और पाटलिपुत्र आदि इसके साक्षी हैं ।
शंकराचार्य जी ने आश्चर्य के साथ कहा था " जो कलियुग के पाप यज्ञ से , दान से , अत्यन्त तप से तथा ज्ञान से नष्ट नहीं होते वे सब पाप हे गंगा माता तुम्हारे जल की धारा के दर्शन से नष्ट हो जाते हैं । " महाभारत के नवपर्व में कहा गया है कि गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है तथा केशव से परे कोई देव नहीं है ।
भगवान विष्णु के चरण कमलों से निकली ब्रह्मा के कमंडल में समाहित , भगवान शंकर की जटाओं में विलीन भागीरथ के अथक प्रयासों से प्राप्त लोक पावनी भगवती गंगा का सेवन क्षण भर के लिए भी जो प्राप्त कर लेता है , वह धन्य है। आदि कवि भगवान वाल्मीकि ने भी श्री गंगा जी से हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए अपनी इच्छा इस प्रकार प्रकट की थी ,
" हे माता भागीरथी ! मैं आप से प्रार्थना करता हूं कि आपके तट पर निवास करते हुए आप के जल का पान करते हुए और आप पर दृष्टि लगाए मेरा शरीर पात हो । " यह लालसा हर हिन्दू मात्र की होती है कि इस नश्वर जगत से प्रयाण करते समय मेरे मुख में माता गंगा की पवित्रतम बूंदें पड़ जाए ।
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