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एक गिलहरी की सत्य कथा | नन्ही गिलहरी की कहानी | गुल्लू गिलहरी

गुल्लू गिलहरी



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अप्रैल के पहले सप्ताह में रोज दोपहर के समय हमारे घर की एक रसोई की छत से गिलहरी का एक बच्चा हमारे आंगन में आ गिरा । बच्चा बहुत ही छोटा था । उसके शरीर पर बाल भी नहीं थे और उसकी आंखें भी नहीं खुली थीं । उस समय यह पता नहीं चल सका कि वह किस जीव का बच्चा है । 




उसकी आवाज से ही पता चल पाया कि वह गिलहरी का बच्चा था । आंगन का फर्श काफी गर्म था और नन्हा बच्चा शायद अपनी मां को ढूंढता हुआ चिल्लाता हुआ इधर - उधर भागने लगा । मैंने अपनी मां और छोटे भाई , जो पांचवीं कक्षा में पढ़ता है , के साथ मिल कर उसकी मदद करने की कोशिश की लेकिन बच्चा बहुत छोटा होने के कारण हमारी उसे हाथ में पकड़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी । 




बच्चा कुछ देर तो इधर - उधर भागता रहा फिर थक कर एक कोने में दुबक कर खड़ा हो गया लेकिन उसका चिल्लाना बढ़ता रहा । केवल छाया करने के अतिरिक्त हम कुछ नहीं कर पा रहे थे । आखिर हमने अपने पापा को उनके दफ्तर में फोन किया और उन्हें सारी बात बताई। उनके सुझाव पर हमने किसी तरह प्लास्टिक के डस्टबिन में डाल कर उसे किचन की छत पर रख दिया 



ताकि उसकी मी उसका विलाप सुन कर उसे ले जाए या  उसके पास आ जाए । परन्तु बच्चे का चिल्लाना तथा इधर - उधर भागना जारी रहा और चार पांच मिनट बाद वह भागता हुआ फिर से आंगन में आ गिरा । हिम्मत जुटा कर हमने उसे गर्म फर्श से किसी तरह उठा कर प्लास्टिक के टब में डाल दिया और छाया में रख कर टब में एक छोटे ढक्कन में पानी और रोटी के छोटे - छोटे टुकड़े रख दिए और पापा का इंतजार करने लगे । 




मेरे पापा के आने तक चूंकि शाम हो चुकी थी । हमारी यह आशा कि उस बच्चे की मां इसकी आवाज सुन कर आ जाएगी , निराशा में बदल गई । पापा ने आकर रसोई की छत पर टार्च से कहीं गिलहरी का घोंसला / घर ढूंढने की कोशिश की लेकिन वहां कुछ न मिला । फल सहित घर में उपलब्ध हर खाने की वस्तु टब में रखी कि वह खा ले लेकिन उसने किसी वस्तु को न छुआ और न चखा और न अपनी चिल्लाहट कम की । 




पापा ने इंटरनैट से गिलहरियों के जीवन संबंधी जानकारी ढूंढी जिससे यह पता चला कि गिलहरियां बीज खाती हैं । 15 से 20 दिन में गिलहरी के बच्चों की आंखें खुलती हैं । अपनी समझ के अनुसार हमने दालों के दाने, चावल के दाने , रोटी के छोटे - छोटे टुकड़े घर में पड़े आम और आडू के छोटे - छोटे टुकड़े टब में रखे परन्तु उसने कुछ न खोया । 


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थक - हार कर हमने टब को कमरे के अंदर रखा और उसकी यदा - कदा होती चिल्लाहट में रात गुजरी । सुबह तक उसकी चिल्लाहट बढ़ गई । टब का गौर से निरीक्षण करने पर पता चला कि केवल आड़ के कटे हुए टुकड़े पर छोटे - छोटे दांतों कै निशान थे । ऐसा लगा जैसे उसने थोड़ा - सा आड़ू का गूदा खाया हो । 




अगले दिन दोपहर के समय इसकी आवाज के साथ बाहर से नीचे की तरफ से , वैसी ही आवाज सुन कर सभी खुशी से बाहर की ओर लपके कि शायद आवाज सुन कर उसकी मां आई है । आवाज की दिशा में उसके स्रोत ढंढने पर पता चला कि नीचे स्कूटर / साइकिल रखने वाली जगह पर एक और बच्चा पड़ा चिल्ला रहा था । 




बहुत ढूंढने पर भी उनकी मां और घोंसले को हम न खोज पाए । कुछ देर सोच - विचार करने के बाद हमारे पापा ने टब वाले बच्चे को भी दूसरे के साथ रख दिया । दोनों बच्चे मिलने पर थोड़ा शांत जरूर हुए लेकिन उनका चिल्लाना खत्म नहीं हुआ । शायद भूख के मारे उनका बुरा हाल था । लगभग एक घंटे तक हम उन दोनों को ध्यान से देखते रहे लेकिन मन में बड़ा तरस - सा आ रहा था । 




हम दोनों भाई - बहन ने मिल कर पापा से अनुरोध किया कि दोनों बच्चों को घर ले आए । शायद आस - पास घरों में रहने वाले आवाज़ सुन रहे थे लेकिन किसी ने उस ओर इतना गौर नहीं किया था । आखिर हमारी विनती मान कर पापा दोनों बच्चों को टब में डाल कर ऊपर ले आए और हम सबने मिल कर प्रार्थना की कि , ' हे भगवान ! या तो आप इन बच्चों को इनकी मां से मिला दो या तो हमें इन्हें पालने की शक्ति दो । 



' दूसरी रात उनके टब में खाने के लिए केवल कटे हुए आडू और थोड़ा पानी टब में रख दिया । उस रात ज्यादा शोर नहीं हुआ जिसका कारण या तो दोनों का इकट्ठा होना था या भूख - प्यास के कारण ज्यादा चिल्लाने की शक्ति न होना था । अगली सुबह दोनों बच्चे बहुत कमजोर और निढाल नजर आने लगे क्योंकि दो दिनों से शायद उन्होंने कुछ नहीं खाया था । 




खाने की चीजें उनके मुंह से लगाने पर भी उन्हें खाना खाना नहीं आ रहा था । शाम को हमारी बुआ जी आईं और यह देख कर हैरान हुईं । उन्हें भूखा प्यासा देख कर उन्होंने उन दोनों को बारी - बारी हाथ में लेकर रुई के फाहे को दूध में भिगो कर बूंद - बूंद उनके मुंह में टपका कर उन्हें दूध पिलाया । थोड़ा - बहुत दूध पेट में जाने से थोड़ी देर बाद दोनों हरकत में आए और टब के अंदर चहल कदमी करने लगे । 




बीच - बीच में आवाजें भी निकाल रहे थे । हमें तो मानो उन्हें पालने " का तरीका मिल गया । 5-6 दिनों में उनकी पीठ पर धारीदार बाल उग आए । अब वे स्पष्ट रूप से गिलहरी के बच्चे नजर आने लगे थे । भरपेट दूध पीने से उनका विलाप कम हो जाता था । अब तो सिर्फ कभी कभी चिल्लाते थे । 10-12 दिनों में दोनों की आंखें खुल गईं । 




उनमें से एक के होंठों के नीचे न जाने कैसे एक जख्म हो गया और हमारी बहुत कोशिश के बावजूद वह बच नहीं पाया । दूसरा , जिसका नाम हमने गिल्लू रखा है , हमारे साथ हमारे घर में रह रहा है और अब सब कुछ खाता है तथा एक गिलहरी का पूर्ण रूप ले चुका है । गिल्लू की हर आदत से अब हम वाकिफ हैं वह पूरे घर में , बैड पर , खिड़कियों पर , दरवाजे पर , पर्दों पर , हर जगह घूमता फिरता है । 





पड़ोसी और हमारे घर वाले मेहमान हमारे परिवार के इस सदस्य को देख कर बड़े हैरान होते हैं । स्कूल में भी अपने दोस्तों - अध्यापकों से इसकी बात करूं तो उन्हें बड़ी हैरानी होती है । हमारे घर के पास एक पार्क है । वहां भी तीन चार गिलहरियां रहती हैं , जो सुबह - सुबह बहुत शोर मचाती हैं । उनका शोर सुन कर गिल्लू भी खिड़की में आ जाता है और उनकी आवाजें सुनता है । 




हम कई बार दरवाजे खिड़कियां खुली छोड़ देते हैं ताकि यदि वह चाहे तो पार्क के पेड़ों पर चला जाए लेकिन वह ' अपना ' घर छोड़ कर कहीं नहीं जाता ।



🙏दोस्तों अगर आपको यह जानकारी अच्छी लगी हो तो आप कमेंट करना ना भूलें नीचे कमेंट बॉक्स में अपनी कीमती राय जरूर दें। Discovery World Hindi पर बने रहने के लिए धन्यवाद ।🌺


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