उनका परिवार एक अमीर परिवार था । आपने विवाह कराने से साफ इंकार कर दिया क्योंकि आपके मन में परम पद प्राप्ति की तड़प थी । पिता के स्वर्ग सिधार जाने के बाद परिवार और कारोबार का सारा बोझ इनके कंधों पर आ गया । काम की वजह से इन्हे सूबे के साथ काबुल की तरफ जाना पड़ा।
रास्ते में एक तम्बू से सुनाई दे रहे गुरु तेग बहादुर जी के वैराग्यपूर्ण शब्दों से इनके मन मैं वैराग्य जाग उठा और ये सब कुछ त्याग कर जंगलों की तरफ निकल पड़े । भाई जी की हमेशा सत - संगत की इच्छा रहती थी । एक दिन भाई जी का मिलाप सफेद कपड़ों वाले एक प्रतापी साधु से हुआ और सेवा करनी शुरू कर दी ।
तीन महीनों तक निस्वार्थ सेवा की तो साधु ने पूछा कि तेरी क्या इच्छा है ? घनईया जी ने कहा कि यह शरीर नाशवान है । इससे ऐसा काम लेना चाहिए जिससे प्रसन्नता लेनी और प्रसन्नता देनी आ जाए । यह सुनकर साधु बहुत प्रसन्न हुए और कुछ दिनों के बाद वे अपने रास्ते चले गए । इसके पश्चात भाई घनईया जी उदास रहने लगे ।
एक दिन नदी के किनारे अन्न - जल त्याग कर बैठ गए । 31 दिन बीतने के बार भाई जी को श्री आनंदपुर साहिब जाने की आकाशवाणी हुई । भाई जी संगतों के साथ मिलकर आनंदपुर चले गए । वहां श्री गुरु तेगबहादुर जी के दर्शन करके इनका मन शांत हो गया और वहां सेवा का पक्का मन बनाकर घोड़ों की सेवा में लग गए ।
चार माह की सेवा के बाद एक समय एकांत में गुरु जी ने भाई घनईया को गुरुमति के प्रचार के लिए जाने और धर्मशाला बनाकर लोगों को सुख देने के लिए कहा और वह गुरुमति प्रचार के लिए निकल पड़े । पेशावर और लाहौर के मध्य में कहवा नामक एक गांव में एक बहुत बड़ी धर्मशाला बनवाई । इस स्थान पर कीर्तन होने लगा ।
भाई घनईया जी आने वाले प्रत्येक यात्री को यह उपदेश देने लगे कि हमारा पंथ एकता का है । जब भाई घनईया जी को गुरु तेग बहादुर जी की तरफ से धर्म रक्षा के लिए शीश कुर्बान कर देने का पता चला तो आप उनकी गद्दी पर विराजमान श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी से मिलने आए और दर्शनों के बाद सेवा में लग गए ।
इस दिन गुरु जी की तरफ से सब सिखों को शस्त्रों से लैस होने के हुक्मों पर ये भी शस्त्रधारी हो गए । एक सिख ने इनसे पूछा कि आपने किसे मारने के लिए तेग धारण की है तो भाई जी ने कहा कि हमने किसी को मारने के लिए नहीं , जो हमें मारने आएगा उसे हम अपना तेग देंगे ताकि उसे कष्ट न करना पड़े ।
इस बात का पता लगने पर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने भाई जी के शस्त्र उतरवा दिए और वही कार्य करने को कहा जो गुरु तेग बहादुर जी ने उन्हें सौंपा भाई जी कुछ समय लंगर में सेवा करने के पश्चात गुरु जी का आशीर्वाद लेकर वापस कहवा गांव में आ गए और लोगों की दिन रात सेवा करने लगे
इस दौरान मुगल फौजों ने आनंदपुर साहिब को घेरा डाल दिया और गुरु जी ने डटकर मुकाबला करना शुरू किया परन्तु भाई घनईया जी चमड़े की मश्क पानी की भर कर लाते और लड़ रहे सिपाहियों को बिना भेदभाव और बेझिझक पानी पिलाने की सेवा करने लगे पर सिंघों को यह बात पसंद नहीं आई ।
उन्होंने गुरु जी के पास जाकर निवेदन किया कि हम मुगलों को जख्मी करते हैं और भाई घनईया जी इनको पानी पिला कर दोबारा जीवन दे देते हैं । गुरु जी ने भाई घनईया जी को बुलाकर पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि मुझे तो यह दिखाई नहीं देता कि आप बिन और भी कोई है ।
यह जवाब सुन कर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उच्चारण किया , जा को छूट गयो भरम उरका , तिस आगे हिन्दू कया तुरका " साथ ही भाई जी को मरहम और पट्टी देकर घायलों की मरहम पट्टी करने का आदेश भी दिया । इस तरह लड़ाई के मैदान में बिना भेदभाव के प्यार और सत्कार के साथ सेवा करके दुनिया में पहली रैडक्रास का पौधा लगाया ।
इस आनंदपुर के युद्ध के पश्चात भाई घनईया जी साधु - संतों की संगत करते रहे और लोगों को अमन , प्रेम और भाईचारे का उपदेश देते हुए वापस कहवा आ गए । 1718 में एक दिन कीर्तन कथा के बाद साधु - संतों से विचार - चर्चा के समय आपने यह बात पूछी कि मृत्यु के पश्चात इस शरीर का क्या किया जाए ? तो संगत ने कहा जैसे आप आदेश करें ।
आप ने कहा मेरे मरने के बाद मेरे शरीर को नदी में बहा देना ताकि यह मछलियों और अन्य जल जीवों के काम आ सके । उसी शाम आप कीर्तन सुनते - सुनते दीवार के साथ सहारा लगाकर बैठ गए । उनका आदेश न मिलने के कारण कीर्तन देर तक चलता रहा । जब कीर्तनिए थक गए और आपको हाथ लगा कर देखा तो आप शरीर त्याग चुके थे ।
साधु समाज ने वचन पूरा किया और इनके शरीर को चन्द्र भागा नदी में प्रवाहित कर दिया । आपके शेष कार्यों को इनके परमशिष्य सेवा राम जी ने पूरा करने के लिए प्रयास शुरू किए । एक सम्प्रदाय गठित हुआ और सेवा पंथियों का सम्प्रदाय भाई घनईया जी के आदर्शों पर चलकर आज दुनिया की सेवा में लगा हुआ है ।
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